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What is Goodness ?

What is Goodness ?

Goodness = benevolence, which is literally good will. We develop our capacity of good will through expressing good wishes towards ourselves and others; as much as possible. And the first and foremost good wish is one we have for the self, one that acknowledges our spiritual identity.

क्षमा

 Kshamaकिसी से निस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शक्ति को क्षमाशीलता कहते हैं। आध्यात्मिकता हमारे अतीत के घावों, अपमानों एवं हानियों को भूलाने की शक्ति देती है। क्षमाशील होने का अर्थ है- स्व के प्रति एवं दूसरों के प्रति दयालु होना। आप स्वयं और किसी दूसरे के लिए वास्तविक अपेक्षाएं रखते हैं। आप दूसरों के दृष्टिकोण को देखते हैं और उनके अधिकार को स्वीकार करते हैं। क्षमा करने के लिए सहनशक्ति नामक आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है। क्षमा कर देने की आपकी वृत्ति में किसी को परिवर्तित एवं प्रेरित करने की शक्ति होती है लेकिन यदि आप किसी को सुधारने अथवा बदलने के लिए सावधान करते हैं तो लोग उससे असंतुष्ट होते हैं और विरोध करते हैं। हालांकि क्षमा करने एवं भूलने की बात कहने में तो आसान लगती है परन्तु इसे कर्म-व्यवहार में लाना कठिन होता है। आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मानुभूति एवं अनासक्त भाव हमें व्यावहारिक एवं सहनशील बनाते हैं। उकसाने एवं चोटिल करने वाली घटनाएं आपकी जांच के लिए आती हैं और इससे पता चलता है कि आप वास्तव में अपने मूल्यों के साथ जी रहे हैं अथवा नहीं? एक प्रसिद्ध सूक्ति है कि आप इसे रोक नहीं सकते, नियत्रित नहीं कर सकते और बदल भी नहीं सकते। इस सच्चाई को मान लेने से किसी को क्षमा कर देना अधिक तर्कसंगत हो जाता है।

शान्ति और सद्भावना फैलाना

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शान्ति ही हमारा वास्तविक धर्म है। किसी भी समाज का प्रमुख लक्षण शान्ति है। शान्ति की शक्ति से हमारे संसाधन एवं लोग संतुलित होते हैं। परिस्थितियों एवं घटनाओं को साक्षीद्रष्टा होकर देखने से शान्ति प्राप्त होती है। साक्षीद्रष्टा होना कोई निष्क्रियता नहीं है बल्कि यह वह आन्तरिक शक्ति है जिससे परिस्थितियों को यथार्थ ढंग से परखकर प्रतिक्रिया करने की शक्ति प्राप्त होती है। धार्मिक मूर्तियों की आँखों एवं उनकी योगस्थ भंगिमाओं में शान्ति परिलक्षित होती है। जब हम मन की शान्त अवस्था में बैठते हैं, तब अपने अन्तर्मन के शान्त प्रक्षेत्र में प्रवेश करते हैं और एक बार फिर से अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होते हैं। सर्व के प्रति शुभभावना रखने से शान्ति और सद्भावना जागृत होती है। इस तरह हमारे अंदर प्रेम, एकता और भाईचारे की भावना बढ़ती है। सद्भावना से समाज में आपसी द्वेष, दुःख और अशान्ति खत्म होता है।

दुःखी व्यक्ति को सहयोग

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हम सभी सामाजिक प्राणी हैं। हम दूसरों के सम्पर्क में रहना चाहते हैं परन्तु अकेले नहीं होना चाहते हैं। हमें लोगों के साथ मिलना-जुलना एवं उन्हें सुनना चाहिए और जहाँ कहीं सम्भव हो उनसे सीखना तथा उनकी मदद करनी चाहिए। भावनात्मक विचारों का आदान-प्रदान करके जीवन का आनन्द लेने के लिए सामाजिक सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है। हमें दुःखी व्यक्तियों को पूर्ण सहयोग करके उनसे प्रेम से बात करनी चाहिए। इससे हमारे अंदर स्नेह, प्रेम और सामंजस्य जैसे गुणों का विकास होता है। वर्तमान समय अनाथ बच्चों की पालना के लिए कई संगठन सेवारत हैं जो उनकी पढ़ाई-लिखाई और भरण-पोषण पर विशेष ध्यान रखते हैं तथा उनकी हर आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं। हमें भी ऐसे पुण्य कार्यों में बढ़-चढ़कर सहयोग करना चाहिए। परमात्मा का सान्निध्य ही हमें विभिन्न प्रकार के दुःखों और बुराइयों से मुक्त रखता है। परमात्मा का संग सर्वश्रेष्ठ संग है। इससे आत्मा का दिव्यीकरण और सशक्तिकरण होता है।

सर्व की भलाई के लिए त्याग करना

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प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों और साधु-संतों ने अपने जीवन को सर्व के कल्याणार्थ अर्पण किया है। महात्मा गॉंधी, मदर टेरेसा, विवेकानंद जैसे महान आत्माओं ने भी समय-समय पर अपनी शिक्षा और आदर्श जीवन से मनुष्यात्माओं को प्रेम, अहिंसा और शान्ति का पाठ पढ़ाया। उन्होंने अपनी त्याग, तपस्या और सेवाभावना से पूरे विश्व को प्रेम, एकता और भाईचारे के सूत्र में पिराने की कोशिश की। कहा जाता है, ‘त्याग से भाग्य बनता है।’ जहॉं त्याग की भावना होगी, वहॉं प्रेम का जन्म होता है। त्याग से नफरत, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा जैसे अवगुण समाप्त हो जाते हैं। माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश करते समय अपनी खुशियों का त्याग कर उनकी हर इच्छाओं को पूर्ण करते हैं अर्थात् प्रेम जितना अधिक गहरा होता है, त्याग की भावना भी उतनी प्रबल होती है। यह विश्व एक परिवार है और हमें भी पूरे विश्व की भलाई के लिए अपना योगदान देना चाहिए। सर्व मनुष्यात्माओं की भलाई के लिए शुभभावना रखना भी एक सत्कर्म है।

स्वीकार्यता

Swikaryataस्वीकार्यता का अर्थ होता है कि हमने अपने जीवन की परिस्थितियों को समझ लिया है। अपने आसपास के लोगों, अपनी महत्वाकांक्षाओं, आशाओं इत्यादि को पहचान लिया है। जब भी कभी आप अक्खड़ता से छुटकारा पा लेते हैं तब आपको गहरी स्वीकार्यता की भावना की अनुभूति होती है। अपनी आलोचना, गलती, सुधार की सलाह को न मानना एवं अन्य किसी की श्रेष्ठता आदि को स्वीकार न करना ही अहंकारी होने का एक चिह्न है। स्वीकार्यता से धैर्यता आती है। जब स्वीकार्यता की अवस्था आती है तब आप शान्ति की अनुभूति करते हैं।

महिलाओं की सुरक्षा

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आज पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार, अत्याचार, अनाचार जैसी घटनाएं निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। समाज का कोई भी वर्ग इससे अछूता नहीं है। वर्तमान समय समाज में महिलाओं की सुरक्षा सबसे अहम हो गई है। महिलाओं पर बढ़ रहे अपराधों पर नियंत्रण करने के लिए कई कानून बने हुए हैं परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। इसके लिए सिर्फ सरकार को ही नहीं बल्कि बुद्ध्जीवियों के साथ-साथ समाज के वरिष्ठ नागरिकों को भी आगे आने की आवश्यकता है। जरूरत है लोगों की सोच में बदलाव आने की। महिलाओं को पर्याप्त शिक्षा देना और उनके स्वास्थ्य का विकास करना होगा। क्या इस तरह के कदमों से महिलाओं को सुरक्षा उपलब्ध कराना सम्भव होगा? महिलाओं को समाज में सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है और पुरुषों की तरह उन्हें स्वतंत्र होकर खुलेआम घूमने का हक है। इसके लिए समाज को जागरूक करना आवश्यक है। कहा जाता है- जहॉं नारी निवास करती है, वहॉं देवताएं विचरण करते हैं। पुरुष प्रधान समाज में नारियों को उच्च स्थान मिलना चाहिए तभी परिवार और समाज में खुशहाली आएगी। यदि समाज में मर्यादा, सदाचार और सहिष्णुता जैसे गुणों का विकास होगा तब नारी की सुरक्षा, उसका सम्मान और उसके अधिकार स्वत आ जाएंगे तथा महिलाओं का शोषण समाप्त हो जाएगा।

सहयोग

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सहयोग अर्थात् इस बात की समझ कि सभी आत्माएं एक ही परमपिता परमात्मा (सर्वोच्च सत्ता) की संतान हैं। यही ‘भाईचारे’ की सच्ची अवधारणा है। भाई-भाई की दृष्टि और भावना ही एकता और शक्ति लाती है तथा हर कार्य को आसान बनाती है। वर्तमान समाज में लोगों के बीच बढ़ती मानसिक दूरी आध्यात्मिक आत्मघात है। इसलिए विश्व परिवर्तन के कार्य के लिए आवश्यक सलाह एवं अनुभवों का हमें आपस में आदान-प्रदान करना चाहिए। सहयोग शक्ति से हम अपनी विशेषताओं व योग्यताओं को सहयोगियों के साथ बांटते हैं तथा सहयोगियों की विशेषताओं व योग्यताओं से स्वयं भी सीखते हैं। इस तरह जीवन का कार्य चलता है। जो कार्य एक से नहीं हो सकता, वह कार्य दो लोग मिलकर कर सकते हैं और जो कार्य दो लोगों से नहीं हो सकता, वह 10 लोग मिलकर कर सकते हैं। सहयोग शक्ति का एक अर्थ यह भी है कि हम दूसरों की विशेषताओं व योग्यताओं को प्रभावशाली ढंग से देखने के योग्य होते हैं। सहयोग की शक्ति से संगठन की शक्ति मजबूत होती हैं एवं इसके आधार पर असम्भव दिखने वाले कार्यों को सम्भव करना सहज हो जाता है। यह वह शक्ति है जिससे बड़े से बड़ा कार्य मनोरंजक बन जाता है। सहयोग करने की शक्ति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि सहयोग देना ही सहयोग लेना है।

धरती माता को उपकृत करना

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 धरती माता अचल होती है और हमारा पोषण करती है। यह हमारे पैरों को खड़ा रहने के लिए स्थान देती है। यह सभी पौधों एवं जानवरों के जीवन का पोषण करती है। धरती माता की तरह हमारी मानसिक चेतना की अवस्था भी अचल होनी चाहिए जिससे हम किसी वस्तु से हिल न सकें। हमारा संकल्प भी दूसरे मनुष्यों और पर्यावरण का पोषण करे। शारीरिक स्तर पर हमें स्वच्छता रखनी चाहिए। इधर-उधर कूड़ा फेंककर गन्दगी फैलाना धरती का अपमान करना है। इसे हमें सदा उपजाऊ बनाकर रखना चाहिए। धरती के साथ-साथ विनाश के कगार पर खड़ी विभिन्न जानवरों, पक्षियों, कीटों एवं वनस्पतियों इत्यादि का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना भी आवश्यक है। खादानों एवं औद्योगिक दोहन के पश्चात् छोड़ी गई भूमि को पुन कृषि योग्य बनाना भी हमारा कर्तव्य है।

उदारता

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वर्तमान परिदृश्य में उदारता का गुण विलुप्त होता नजर आ रहा है। स्वयं को महान समझने मात्र से ही महानता सम्भव नहीं है क्योंकि गुण का महत्व कर्मों में उसका अनुसरण करने से होता है। गुणों को थोपा नहीं जा सकता अपितु उदारता दिल से निकला हुआ वह गुण है जो सरलता से प्रयोग में लाया जाए। उदारता प्राय उन व्यक्तियों में उत्पन्न होती है जो भौतिक रूप से सम्पन्न नहीं होते हुए भी अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को सत्य साबित करने की होड़ में लगा हुआ है। इससे नकारात्मक विचार और व्यवहार में वृद्धि हो रही है। भ्रमपूर्ण मान्यताओं के कारण ही हमारी बुद्धि स्वयं की वास्तविक अच्छाइयों और गुणों को देख पाने में असमर्थ होती है। अत विवेक के प्रयोग के माध्यम से ही उदारता को प्राप्त किया जा सकता है। राजयोग मनुष्य को विकारों के जंगल और रूढ़िवादी मान्यताओं को समाप्त करने में सहायता प्रदान करता है तथा स्वयं के वास्तविक स्वरुप में स्थित करता है। उदारता तथा सर्व के प्रति कल्याण की भावना निस्वार्थ सेवा के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण है।

प्रकृति के प्रति दया

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प्रकृति मूल्यों का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। प्रकृति से हमें विभिन्न मूल्यों की शिक्षा प्राप्त होती है। जैसे फूलों से हमें मुस्कुराने, कलियों से हंसने, हरे-भरे पेड़ से मौन, मधुमक्खियों से संचय इत्यादि मूल्यों की शिक्षा मिलती है। यह प्रकृति जीवन एवं मानव सभ्यता का पोषण एवं संरक्षण करती है परन्तु धन संग्रह करने की लोलुपता ने मनुष्य को प्रकृति से दूर कर दिया है। प्रकृति और मनुष्य के बीच सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है, तभी इस धरती को महाविनाश से बचाकर मानव जीवन के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। प्रकृति के साथ सम्पर्क-सम्बन्ध में रहने से मनुष्य के जीवन में मूल्यों का संचार स्वाभाविक रूप से होता रहता है। प्रकृति के सम्पर्क-सम्बन्ध से दूर जाना भी मनुष्य के जीवन में समस्याओं, चुनौतियों, दुःख, निराशा और हताशा इत्यादि के बढ़ने का प्रमुख कारण है। प्राकृतिक अर्थात् पर्यावरण के अन्तर्गत लुप्तप्राय वनस्पतियों, जानवरों, पक्षियों एवं कीटों आदि सम्मिलित है क्योंकि मनुष्य के जीवन के लिए प्रकृति के ये विभिन्न घटक अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार हमें प्रकृति के प्रति दयाभाव रखना चाहिए। इनके बिना मनुष्य के जीवन का अस्तित्व समाप्त हो सकता है।

बच्चों की देखभाल करना

Bachcho-ki-dekhbhalवर्तमान समय बढ़ती महंगाई से प्रत्येक मनुष्य चिंतित है। उन्हें पारिवारिक खर्च, बच्चों की देखभाल और उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिए काफी मेहनत करनी पड़ रही है। प्रतिस्पर्धा और तनावयुक्त जीवन में बच्चों की देखभाल करना किसी समस्या का समाधान करने जैसा है। वहीं दूसरी ओर, आज अधिकांश माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव है। हर कोई पैसे कमाने की दौड़ में लगा हुआ है। बच्चे क्या कर रहे हैं, कहॉं जा रहे हैं और किसके साथ खेल रहे हैं? यह सब जानने के लिए माता-पिता के पास समय नहीं है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे बड़े होकर अच्छे इंसान बने तो हमें उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ-साथ अच्छे संस्कार देने होंगे। बच्चों को अच्छे संस्कार अपने माता-पिता और परिवार से मिलते हैं जिसके लिए उन्हें पर्याप्त समय देने की आवश्यकता है। आज के बच्चे आधुनिक फैशन और बुरे व्यसनों में फंस रहे हैं। उन्हें उचित मार्गदर्शन और उचित दिशा देने की आवश्यकता है। क्योंकि यही बच्चे कल का भविष्य है। मूल्य और आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा हम बच्चों को अनेक प्रकार की सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों तथा व्यसनों से मुक्ति दिला सकते हैं।

 

खुशीबांटना

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खुशी मन की एक सकारात्मक शान्त अवस्था है। प्रेम, उदारता एवं अनासक्ति खुशी की कुंजी है। संकल्प, वाणी और कर्म द्वारा मानवता, पर्यावरण तथा ईश्वरीय कार्य में सहयोग करने से खुशी प्राप्त होती है। बुरा न देखना, बुरा न सुनना, बुरा न बोलना तथा किसी दूसरे या स्वयं की भी कमजोरी को मन में न रखना ही खुशी है। सत्यता के मूल्य के साथ धन कमाना और शान्ति की शक्ति के बल पर मन से कार्य कराकर सुस्वास्थ्य प्राप्त करना खुशी है। निस्वार्थ विचार, शुद्ध वृत्ति और कर्म से खुशी नैसर्गिक विरासत के रूप में प्राप्त होती है। दूसरों को खुश रहते देखकर स्वयं खुश होना भी खुशी का आधार है। अपनी खुशी के अनुभव के क्षणों को दूसरों के साथ बांटने से भी खुशी प्राप्त होती है। भौतिक साधनों पर आधारित खुशी अस्थायी होती है। जब हम सच्चे दिल से सेवा करते हैं, तब सन्तुष्टता की महानता खुशी के शाश्वत रूप में बनी रहती है क्योंकि हम लगातार दूसरों की दुआएं प्राप्त करते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान का नियमित रूप से श्रवण और मनन-चिन्तन जीवन में व्यावहारिक रूप से खुशी प्रदान करता है।

विकलांगों की सहायता

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अपने अनुभव, गुण, शक्तियों और संसाधनों को निष्काम भाव से दूसरों के लिए प्रयोग करना ही निस्वार्थ सेवा है। आँखों से जीवन की अच्छाइयों को देखने, कानों से लोगों के हृदय की संवेदनाओं को सुनने तथा होठ से निकलने वाले शब्दों के माध्यम से लोगों को प्रोत्साहित करने में इनका प्रयोग करें। निष्काम सेवा के लिए केवल अच्छा कर्म करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि दृष्टि और वृत्ति द्वारा सूक्ष्म सकारात्मक कर्म करना अर्थात् सर्व मनुष्यात्माओं को शुभभावनाओं का सहयोग देना भी आवश्यक है। आन्तरिक भावों और चेतना में स्थिरता तथा विश्राम का अनुभव करना स्वयं की मानसिक सेवा है। हमें निर्धन, असहाय और विकलांगों की सहायता करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देना चाहिए। सर्वोच्च सत्ता ही मनुष्य को सम्पूर्ण सेवाधारी बना सकता है। परमात्मा हमारे अन्दर अद्वितीय गुण और शक्ति को भरकर हमें सेवा के योग्य बनाने में समर्थ है। वह हमारे कर्म के माध्यम से हमारे भविष्य को देखता है। कर्मों की गहन गति का यह नियम है- ‘जो आप देते हैं वही प्राप्त करते हैं।’ इसलिए सदा देने की भावना होनी चाहिए।

 

स्वयं तथा विश्व के कल्याण के लिए ध्यानाभ्यास

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प्रातकाल का समय स्वयं, विश्व की सम्पूर्ण मनुष्यात्माओं तथा सम्पूर्ण प्रकृति की मनसा सेवा के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय है परन्तु इसके लिए साधक की योग अवस्था बहुत ही उच्चकोटि का होना आवश्यक है। उच्च मानसिक अवस्था के लिए इस पंच भौतिक तत्वों से परे ‘अशरीरी अवस्था’ का अनुभव सबसे महत्वपूर्ण होता है। अशरीरी अवस्था का अनुभव करने के लिए सर्वप्रथम स्वयं को इस शरीर से परे ज्योतिर्बिन्दुस्वरुप चैतन्य आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है। पुन अपने आत्मिक गुण और शक्तियों की प्रत्यक्ष अनुभूति करते हुए अपने मन-बुद्धि को एकाग्र करके अपना ध्यान इस भौतिक जगत् से पार परमधाम में ज्योतिर्बिन्दुस्वरुप परमात्मा के ऊपर केन्द्रित करते हुए मौन संवाद करना चाहिए। आत्मा और परमात्मा के बीच आध्यात्मिक मौन संवाद बहुत ही सुखद और रमणीक होता है। अपने सम्मुख सम्पूर्ण विश्व को सूक्ष्म रूप से इमर्ज करके परमात्म-अनुभूति से प्राप्त शक्तियों का सकाश देने से सम्पूर्ण विश्व सतोप्रधान बनता है। जब अमृतवेला (प्रातकालीन समय) सम्पूर्ण विश्व एवं प्रकृति को पावन बनाने के संकल्प में स्थित होकर सामूहिक रूप से ध्यानाभ्यास किया जाता है तो उस समय शक्तिशाली योग की किरणों का प्रवाह बहुत ही तीव्र हो जाता है और वातावरण शुद्ध और सतोप्रधान बनने लगता है।

दिव्य अनुभवों का आदान-प्रदान करना

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विज्ञान की महान सत्ता, शास्त्राsं की सत्ता, राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्वकर्ताओं ने अपनी-अपनी गतिविधियों के आधार से इस संसार को बदलने का प्रयास किया है। इन सभी में सबसे महान अनुभव करने की सत्ता है। अनुभवी मनुष्यात्मा किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुए सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकती है। अनुभवी व्यक्ति सभी को संतुष्ट कर सकता है। इसलिए अनुभव के खजाने को प्राप्त करने वाला अनुभवों का साक्षात् स्वरूप बन जाता है। महान अनुभव का अर्थ है- महान व्यक्ति। अनुभव शक्ति की कमी के कारण ही स्व-परिवर्तन नहीं हो पाता है। परिवर्तन का सबसे सहज आधार अनुभव की शक्ति है। जब तक अनुभव करने की शक्ति नहीं होगी, तब तक परिवर्तन नहीं हो सकता है और जब परिवर्तन नहीं होता है तब किसी विशिष्ट जीवन का आधार खड़ा नहीं हो सकता है। आत्म-अनुभूति से अनुभव होता है और इससे ही परिवर्तन होता है। महान व्यक्ति दिव्य अनुभवों का आदान-प्रदान कर मनुष्यात्माओं को श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं।

दया

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करूणा व क्षमा की एक स्थिति दया है। दयालु होना अर्थात् सहानुभूतिपूर्ण एवं वास्तविक स्थिति को समझने वाला। दयालु होने का अर्थ है- साहस और शक्ति देना। आपकी दया दूसरों को इस योग्य बनाती है कि वे अपने विवेक की आवाज सुन पाते हैं, महसूस कर पाते हैं और स्वयं को बदल पाते हैं। दया हर किसी को अधिक असरकारक तरीके से परिवर्तित करती है न कि दण्ड से। यदि आप किसी को दण्डित करते हैं, तब वह गलत कार्य के औचित्य को ठहराने की चेष्टा करता है लेकिन दया का अर्थ है- स्व को और दूसरों की प्रगति को प्रोत्साहित करना। दया मनुष्य की करुणा का दूध है जो जरूरतमंदों अथवा पीड़ित आत्माओं के ऊपर कोमलतापूर्वक प्रभाव डालता है। दया जब विनम्रता के साथ युक्त रहती है तब हम दूसरों की भावनाओं को समझ पाते हैं। स्वयं के लिए दया का अर्थ है- अपने लिए उचित लक्ष्य तय करना। आप स्वयं के लिए अपनी सीमाओं से बहुत अधिक अपेक्षाएं निर्धारित करने से बचते हैं ताकि आपको बार-बार निराश और हताश न होना पड़े।

 

प्रेम

Prem

प्रेम महान स्नेह शक्ति है जिससे विश्वास की उत्पत्ति होती है जो मनुष्य का सम्बन्ध परमपिता परमात्मा से जोड़ देती है। आध्यात्मिक प्रेम और विश्वास नाम-मान-शान या ख्याति से मुक्त सभी संकल्पनाओं को पूर्ण करता है। किसी व्यक्ति की देखभाल करना, उससे निकटता की अनुभूति करना तथा भावनाओं का आदान-प्रदान करना ही प्रेम है। प्रेम एक आकर्षण शक्ति है। लोगों को उनकी कमियों के बावजूद भी स्वीकार करना प्रेम है। प्रेम सार्वभौमिक होता है और इसकी कोई सीमाएं नहीं होती हैं। प्रेम में लेने की नहीं बल्कि सदा देने की भावना होती है। मन को दुःख पहुँचाने वाली भावनाएं प्रेम नहीं होती हैं। दूसरों से प्रेम करने का अर्थ दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना है। सर्वोच्च सत्ता को याद करने से ईश्वरीय प्रेम एवं शक्ति की अनुभूति होती है तथा समस्याओं का समाधान करने के लिए आवश्यक धैर्य शक्ति प्राप्त होती है। प्रेम मनुष्य को चिन्ता से मुक्त कर शान्ति का स्वाभाविक अनुभव कराता है। मनुष्य आध्यात्मिक प्रेम की अनुभूति के लिए सदा उत्सुक होता है। प्रेम विहीन जीवन आशा व मधुरता से रहित होता है। प्रेम मानवीय सम्बन्धों का आधार है। यह इसे दिव्यता और भव्यता प्रदान करता है। सम्भवत इसीलिए कहा जाता है कि प्रेम में पत्थर को भी पिघलाने की शक्ति निहित है। आध्यात्मिक प्रेम दिल के टूटे हुए टुकड़ों को जोड़कर पूर्णता प्रदान करता है। प्रेम वह आध्यात्मिक शक्ति है जो सम्पूर्ण मानव प्रजाति, जीव-जन्तुओं और पर्यावरण के प्रति शुद्ध और शान्तिपूर्ण प्रकम्पन्न उत्पन्न करती है। यह तन-मन-धन से निस्वार्थ सम्पन्न भावनाएं हैं जो देने वाले को खुशी प्रदान करती हैं।

आनन्द फैलाना

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आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन (आत्मसात करना) आनन्द का स्रोत है। अनुशीलन से प्राप्त आध्यात्मिक खुशी चेहरे से तरंगित होकर स्वत सेवा करती है। इस आध्यात्मिक आनन्द में प्रेम, ज्ञान, शान्ति और शक्ति निहित होती है। इससे सम्पूर्ण आनन्द का अनुभव होता है जो आत्मा को तमोप्रधान नकारात्मक वातावरण से मुक्त कर सदा आनन्द की स्थिति में रखता है। सर्वोच्च सत्ता परमात्मा के सत्य स्वरूप और ज्ञान का अनुशीलन असीम आनन्द का अनुभव कराता है। आध्यात्मिक आनन्द एक उच्च चेतना की अवस्था है जो देह-अभिमान पर आधारित संकीर्ण चेतना को समाप्त करती है। इससे मनुष्यात्मा सेवा का साकार उदाहरण बनकर सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन जाती है। ईश्वर से प्राप्त होने वाला यह आनन्द मनुष्य के लिए सर्वोत्तम उपहार है। आत्मा का एक नैसर्गिक गुण आनन्द है। यह आत्मा का मूल स्वभाव है। जब हमारे अन्दर नकारात्मक सोच, चिड़चिड़ापन, दूसरों की कमियों को देखने, आत्म-ग्लानि इत्यादि की आदत समाप्त हो जाती है तो आत्मा के मूल गुण जैसे शान्ति, प्रेम, शक्ति, पवित्रता इत्यादि गुणों का अनुभव होने लगता है। आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन करते समय आनन्द का अनुभव होता है।

दूसरों को प्रेरणा प्रदान करना

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हमें सदा दूसरों को महान कार्य करने के लिए प्रेरणा देते रहना चाहिए। प्रेरणा की उढर्जा हमारे चारों ओर होती है। प्रेरणा एक विचार है और तर्कसाध्य, रचनात्मक एवं परिणामदायक व्यवसायों में महानता और प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए सक्रिय होने की इच्छा है। प्रेरणा जीवन में एक प्राकृतिक, अदृश्य एवं उढर्जादायक जीवन शक्ति है। प्रेरणा एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो हमारे आन्तरिक मानवीय साधनों को अपने लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए सकारात्मक उढर्जा का प्रवाह प्रदान करती है। दूसरे लोगों को अपने आदर्श व्यवहार और कर्म द्वारा मार्गदर्शन करने वाले ही महान नेतृत्वकर्ता होते हैं। महात्मा गाँधी जी अपनी आदर्श कथनी और करनी द्वारा लोगों को श्रेष्ठता की राह दिखाने वाले आदर्श मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहते थे। लोगों का विश्वास प्राप्त करने के लिए हमारे संकल्प, वाणी और कर्म में सामंजस्य अति आवश्यक है। एक बार अमेरिका की एक सैन्य टुकड़ी अपने सैन्य अभियान पर जा रही थी। रास्ते में पड़े लकड़ी के एक बहुत भारी लट्ठे को हटाना आवश्यक था। सैन्य अधिकारी लकड़ी के उस भारी लट्ठे को हटाने के लिए सैनिकों को आदेश दे रहा था। बहुत भारी होने के कारण सैनिक उस लकड़ी को हटा नहीं पा रहे थे। इसके लिए और अधिक व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता थी। सेना के अधिकारी का विश्वास था कि उसका कार्य सैनिक को मात्र आदेश देना है। सैनिकों की सहायता करना उसका कार्य नहीं है। इसी बीच घोड़े पर सवार होकर एक व्यक्ति वहाँ पहुँचा। वह घोड़े से नीचे उतरकर सैनिकों को लकड़ी के भारी लट्ठे को रास्ते से हटाने में सहायता किया। घोड़े पर पुन सवार होते हुए उसने सैनिकों से कहा कि यदि सहयोग की कोई आवश्यकता हो तो वे तुरन्त सेनाध्यक्ष से सम्पर्क कर सकते हैं। वह घुड़सवार अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन थे। जब हम एक पवित्र, मानवीय और नैतिक जीवन जीते हैं तो इससे अन्य लोगों को भी श्रेष्ठ और आदर्श जीवन जीने के लिए प्रेरणा मिलती है। समाज में जिम्मेदार बड़े लोगों को वाणी, कर्म और आचरण के प्रति बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि उनके आचरण और व्यवहार की ओर सबकी निगाहें टिकी होती हैं। हम अपने जीवन के श्रेष्ठ कर्मों का अनुभव सुनाकर दूसरों को प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं। इससे उनका जीवन भी इन गुणों को अपनाकर प्रेरणादायी बन जाएगा। इससे संसार में सुख-शान्ति और सम्पन्नता की लहर फैलेगी।

व्यर्थ विचारों को समाप्त करना

Vyarth-Vicharo-ko-samaptस्मृति और मानसिक चेतना की स्थिति के अनुसार मन में विचार उत्पन्न होते हैं। अपनी मनोदशा के अनुसार ही हम वैचारिक रूप से क्रिया और प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। विचारों की गुणवत्ता के अनुसार ही हमारे मन में संवेदना या भावना के अनुभव का निर्धारण होता है। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हम अनुभव करते हैं। सकारात्मक और नकारात्मक विचारों के अनुसार ही तन और मन पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तब मन में प्रसन्नता, शान्ति, खुशी और शक्ति का अनुभव होता है तथा मन की शक्तिशाली मनोदशा हमारे शरीर के तंत्रिका तंत्र और अन्य अंगों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि सकारात्मक मनोदशा से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसलिए हमें सदा व्यर्थ विचारों से बचना चाहिए और सकारात्मक विचारों का सृजन करते रहना चाहिए।     यह कहा जाता है कि मनुष्य वर्तमान में जो कुछ होता है वह अपने विचारों की गुणवत्ता के कारण होता है। राजयोग ध्यानाभ्यास द्वारा मन में उत्पन्न होने वाले विचारों की गुणवत्ता को बढ़ाकर उत्तम मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्राप्त किया जा सकता है।